बुधवार, 27 जनवरी 2010

कुंवारे का गाँव


अब्दुल्ला

अभी तक तो बेटी के पिता को ही अपनी लड़की के विवाह की फिक्र सताती थी मगर शिवपुरी जिले में ऐसे एक दो नहीं, बल्कि पूरे दो दर्जन से अधिक गांव हैं, जहां कुंवारे युवकों की पूरी फौज मौजूद है और इन गांवों को कुंआरों के गांव के नाम से पुकारा जाने लगा है।दरअसल इन गांवों में फ्लोराइड युक्त पानी होने के कारण लोग अस्थि विकार का शिकार हो जाते हैं। इसी वजह से आसपास के गांवों के लोग इन गांवों में अपनी बेटी ब्याहने से कतराते हैं। इन गांवों के लोग अपनी लड़कियों की शादी छोटी उम्र में करके उन्हें तो इस बीमारी से बचा लेते हैं, लेकिन सेहरा बांधने की हसरत में उनके लड़कों की उम्र ढल रही है।सूत्रों का कहना है कि फ्लोराइड युक्त पानी वाले गांवों की संख्या और भी तेजी से बढ़ रही है। फ्लोरोसिस से पीडि़त गांवों में लोग अपनी बेटियां ब्याहने से कतराते हैं और पिछले लंबे समय से यहां यह स्थिति देखी जा रही है। अब तो हालत यह है कि लोग इन गांवों को कुंआरों के गांव के नाम से भी पुकारने लगे हैं।शिवपुरी जिले के नरवर और करैरा विकासखंड अंतर्गत मौजूद इन गांवों के पानी में फ्लोरोसिस का जहर घुला हुआ है। ग्राम हथेड़ा, मिहावरा, गोकुंदा, टोडा आदि में फ्लोराइड के आधिक्य ने पानी को विषैला कर डाला है। इस विषैले पानी के सेवन से लोग अस्थि विकृति के शिकार हो रहे है।इस बीमारी की चपेट में आने वाले लोगों में जवानी में ही बुढ़ापे की झलक साफ देखने को मिलती है। दांतों की कतारें बदरंग हो जाती है और कम उम्र में ही दांत गिरने लगते हैं। इन गांवों में अपाहिजों की तादाद भी तुलनात्मक तौर पर चौंकाने वाली है।बकौल डा. डी के सिरोठिया, फ्लोरोसिस एक दफा अपना प्रभाव जमा ले तो फिर उससे निजात मिलना असंभव सा कार्य है। इसके लिए तो यही कहा जाएगा कि फ्लोरोसिस से बचाव ही इसका इलाज है। उन्होंने बताया कि फ्लोराइड की मात्रा फूलपुर, हतेड़ा आदि क्षेत्रों में तो 5 पीपीएम तक है जबकि एक से 1.5 पीपीएम तक फ्लोराइड की मात्रा पानी में मानव उपयोगार्थ स्वीकार्य है।नरवर के टुकी क्षेत्र के गोपाल यादव का कहना है कि वह दो जवान बेटियों का बाप है परंतु हतेडा, गोकुंदा आदि ग्रामों में लड़के होते हुए भी वह अपनी बेटियों की शादी इन गांवों में नहीं करेगा। उसका कहना है कि वहां उनकी बेटी की ही नहीं, उसकी भावी संतानों की भी जिंदगी खराब हो जाएगी।फ्लारोसिस की दहशत ने लड़की वालों को इस कदर अपनी जकड़ में ले रखा है कि यहां के पूरे पूरे गांव शहनाई की आवाज को तरस गए हैं। ग्राम फूलपुर के कोमलसिंह, मंशाराम, राजाराम सिंह आदि के घर जवान बेटे मौजूद हैं, जिनकी शादी की उम्र निकलती जा रही है, इनकी शादी की सभी संभावनाएं फीकी है। राजाराम निराश भाव से कहता है कि अब तो उसने रिश्तों की बाट देखना भी बंद कर दिया है।फूलपुर टोडा हथेडा, महावरा, जरावनी, गोकुंदा आदि में महिला पुरुष अनुपात बेहद असंतुलित है। यहां की बेटियों की शादी तो कम उम्र में आसानी से हो जाती है, लेकिन युवकों का दुल्हन नहीं मिल पाती।ग्रामीण हरज्ञान पाल का कहना है कि फ्लोरोसिस यहां दशकों से है, किन्तु जब से प्रचार माध्यमों ने प्रचारित किया है तभी से गांवों में कुंआरों की संख्या लगातार बढ़ने लगी हैं। फ्लोरोसिस नामक बीमारी के फैलाव का मुख्य और एक मात्र कारण इन गांवों में पानी के स्त्रोतों का फ्लोराइड प्रभावित होना है। फ्लोराइड ने लोगों के अस्थि तंत्र, तांत्रिका तंत्र और अन्य अंगों को प्रभावित कर डाला है।स्वास्थ्य यांत्रिकी विभाग ने इस त्रासदी से निपटने के लिए स्थान-स्थान पर डी फ्लोरीडेशन संयत्र स्थापित करने के अलावा नल-जल योजनाओं के जरिए दीगर स्थानों से पानी लाए जाने का प्रयास किया है। क्षेत्र के 30 से अधिक हैंडपंप फ्लोराइड की स्वीकार्य मात्र से अधिकता वाले जल की उपलब्धता के कारण बंद कर लाल रंग से चिंहित कर दिए गए हैं।रतिराम यादव कहता है कि सब कुछ किया जा रहा है परंतु गांव के बारे में जो धारणा बन चुकी है उसे बदल पाना संभव नहीं है। सरकार हमारी शादी का प्रबंध करने के लिए भी कुछ करे तो बात बने।

गुरुवार, 14 जनवरी 2010

हिमालय रहेगा तभी हम रहेंगे


दिनेश पन्त

हिमालय व इसके करीब बसने वालों के समक्ष कई चुनौतियां व संकट हैं। यहां का जनजीवन, जल, जंगल, जमीन, जानवर सभी संकट के साए में हैं। अनियोजित विकास व प्राकृतिक संसाधनों की लूट के चलते हिमालय का प्राकृतिक संतुलन बिगड़ रहा है जिसकी मार खुद हिमालय के साथ ही आसपास की जनता भी भुगत रही है। इस अंचल में हो रहे पर्यावरण असंतुलन ने यहां की आर्थिक, सामाजिक व सांस्कृतिक समृद्धि को भी हिलाया है। सूखा, भूकंप, अतिवृष्टि और भूस्खलन का नतीजा पर्वतीय लोग भुगत रहे हैं। स्थिर कहा जाने वाला हिमालय आज हिला हुआ है। खिसकते ग्लेशियर आज इसी के लिए खतरा हैं। यहां का हिमाच्छादित क्षेत्र सिकुड़ रहा है। भूगर्भ विशेषज्ञों के मुताबिक, 1986 तक जो क्षेत्र 85 फीसद था, वह अब मात्र 35 फीसद रह गया है। हर साल, हर बरसात में हिमालय दरकता जा रहा है यानी हर साल दर्जनों लोगों की जानें भी जा रही हैं, सम्पत्ति चौपट हो रही है और जनजीवन महीनों तक ठप रहता है। हिमालय के लगातार दरकने से सड़क दुर्घटनाओं में भी इजाफा हुआ है। सैकड़ों लोग असमय मौत के मुंह में चले जाते हैं। जिस हिमालय में कभी मच्छर नहीं थे, वहां आज मलेरिया व डेंगू के मरीज बढ़ रहे हैं। आज हिमालय बगावत पर उतर आया है। उत्तराखंड भी इन्हीं सवालों से दो-चार है। यहां के जीवन का आधार जल, जमीन, जंगल व जानवर हैं, यहीं यहां के पर्यावरण व अर्थव्यवस्था के आधार हैं। राज्य की 80 प्रतिशत आबादी ग्रामीण है। इनकी मूलभूत जरूरतें इन्हीं से जुड़ी हैं। विकास के नाम पर यहां के प्राकृतिक संसाधनों के साथ लूट के चलते पहाड़ी भागों की खेती चौपट हो रही है। रोजगार के चलते लोग पलायन कर रहे हैं। खेती को संभालने वाला मानव संसाधन भाग रहा है। उजड़ते गांव, बंजर होती जमीनें, युवाओं की कमी और बुजुर्गों की लाचारी का फायदा कुछ चालाक लोग उठा रहे हैं। प्राकृतिक संसाधनों का अपने हितों के लिए उपयोग हो रहा है। 65 प्रतिशत जंगलों पर स्थानीय जनता को उनके हक से वंचित करने की साजिश जारी है। हर साल जंगलों में आग लगना साजिश है, आग बुझाने के नाम पर लाखों–करोड़ों की हेराफेरी होती है। आग का सर्वाधिक नुकसान पर्यावरण व जनजीवन पर पड़ा है। आग में करोड़ों की वन संपदा नष्ट हो रही है, हर साल हजारों किलोमीटर वन क्षेत्र आग में समा रहे हैं। यह कई बीमारियां की जड़ बन गयी है। साथ ही, जानवरों के समक्ष भी संकट पैदा हो गया है। ये अब पेट भरने व रैन बसेरे की तलाश में मानव आबादी तक आ पहुंचे हैं और मानव पर हमला कर रहे हैं, जिससे अभी तक सैकड़ों लोग शिकार हो चुके हैं। इन सबके पीछे की वजह पारिस्थिकीय असंतुलन है। मैदानी क्षेत्रों को देखें, तो लगभग 42 प्रतिशत खेती संकट के साये में है। उघोगों की स्थापना के नाम पर खेती योग्य जमीन सरकार व कंपनियों की मिलीभगत से छीन रही है। हिमालय के हिस्से इन कल-कारखानों का प्रदूषण आ रहा है, तो कंपनियां जमकर मुनाफा कमा रही हैं। यानी मुनाफाखोरी चरम पर है। वनीकरण का खेल खेलकर यूकेलिप्टस जैसी पानी सोखने वाली प्रजाति को बढ़ावा दिया जा रहा है। इससे एक आ॓र पानी के स्रोत सूख रहे हैं, जिससे मानव के समक्ष पानी का संकट है, तो वहीं पानी के अभाव में खेत भी बंजर हो रहे हैं। कहने को तो उत्तराखंड में भरपूर पानी है, फिर भी यहां की आबादी पानी को तरस रही है। पर्यावरणीय नजरिये से अहम रहे यहां के नौले, सिमार, चाल-खाल, पोखर और तालाब के संवर्धन के बजाय ऐसी योजनाएं अमल में लायी जा रही हैं जो पानी से उसका धरातलीय नियंत्रण छीन रहे हैं। इन्हीं सब चिन्ताओं को लेकर पिछले दिनों राज्यभर में ‘नदी बचाआ॓’ अभियान चलाया और 2008 को ‘नदी वर्ष’ भी घोषित किया गया था। जंगली वनस्पतियों व भू-क्षरण को रोकने में मददगार प्रजातियों के नष्ट होने से पहाड़ दरक रहे हैं, जिसके कई कुप्रभाव सामने आ रहे हैं। छोटे कस्बों, शहरों का तमाम कचरा नदियों में समा रहा है जिससे पापनाशिनी नदियां रोग पैदा कर रही हैं। भूस्खलनों से प्राकृतिक संपदा बर्बाद हो रही है, गांव व खेत उजड़ रहे हैं। हर साल कई परिवार बेघरबार हो रहे हैं। उनके सामने रोजी-रोटी का संकट है, तो सिर छुपाने की चिंता भी। भूस्खलन के मलबे से नदी-नाले पट रहे हैं, जिसके चलते बरसात में पानी की निकासी के अभाव में जलभराव की बड़ी समस्या सामने आ रही है। उत्तराखंड से बहने वाली 14 नदियों में 220 से अधिक जल विघुत परियोजनाएं चल रही हैं, जिनसे निकलने वाला लाखों टन मलबा इनमें समा रहा है, अब ये पवित्र नदियां मैला ढो रही हैं। यहां के गाड़, गधेरे, नदियां कंपनियों के पास गिरवी रखने की बड़ी साजिश चल रही है, लेकिन पर्यावरणीय नुकसान के आकलन, जनता के पुनर्वास व भूमि के मुआवजों संबंधी मुद्दों पर सरकार चुप है। इन परियोजनाओं के बनने से यहां का ‘इको–सिस्टम’ बदल रहा है। हिमालय को बचाना ही इलाज है।

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समाज की कट्टरता और पौराणिक थोथेपन के विरुध्ध संघर्षरत हर पल पर हैरत और हर जगह पंहुच की परिपाटी ने अवरुद्ध कर दिया है कुछ करने को. करूँ तो किसे कहूं ,कौन सुनकर सबको बतायेगा, अब तो कलम भी बगैर पैरवी के स्याही नहीं उगलता तो फिर कैसे संघर्ष को जगजाहिर करूँ.