गुरुवार, 14 जनवरी 2010

हिमालय रहेगा तभी हम रहेंगे


दिनेश पन्त

हिमालय व इसके करीब बसने वालों के समक्ष कई चुनौतियां व संकट हैं। यहां का जनजीवन, जल, जंगल, जमीन, जानवर सभी संकट के साए में हैं। अनियोजित विकास व प्राकृतिक संसाधनों की लूट के चलते हिमालय का प्राकृतिक संतुलन बिगड़ रहा है जिसकी मार खुद हिमालय के साथ ही आसपास की जनता भी भुगत रही है। इस अंचल में हो रहे पर्यावरण असंतुलन ने यहां की आर्थिक, सामाजिक व सांस्कृतिक समृद्धि को भी हिलाया है। सूखा, भूकंप, अतिवृष्टि और भूस्खलन का नतीजा पर्वतीय लोग भुगत रहे हैं। स्थिर कहा जाने वाला हिमालय आज हिला हुआ है। खिसकते ग्लेशियर आज इसी के लिए खतरा हैं। यहां का हिमाच्छादित क्षेत्र सिकुड़ रहा है। भूगर्भ विशेषज्ञों के मुताबिक, 1986 तक जो क्षेत्र 85 फीसद था, वह अब मात्र 35 फीसद रह गया है। हर साल, हर बरसात में हिमालय दरकता जा रहा है यानी हर साल दर्जनों लोगों की जानें भी जा रही हैं, सम्पत्ति चौपट हो रही है और जनजीवन महीनों तक ठप रहता है। हिमालय के लगातार दरकने से सड़क दुर्घटनाओं में भी इजाफा हुआ है। सैकड़ों लोग असमय मौत के मुंह में चले जाते हैं। जिस हिमालय में कभी मच्छर नहीं थे, वहां आज मलेरिया व डेंगू के मरीज बढ़ रहे हैं। आज हिमालय बगावत पर उतर आया है। उत्तराखंड भी इन्हीं सवालों से दो-चार है। यहां के जीवन का आधार जल, जमीन, जंगल व जानवर हैं, यहीं यहां के पर्यावरण व अर्थव्यवस्था के आधार हैं। राज्य की 80 प्रतिशत आबादी ग्रामीण है। इनकी मूलभूत जरूरतें इन्हीं से जुड़ी हैं। विकास के नाम पर यहां के प्राकृतिक संसाधनों के साथ लूट के चलते पहाड़ी भागों की खेती चौपट हो रही है। रोजगार के चलते लोग पलायन कर रहे हैं। खेती को संभालने वाला मानव संसाधन भाग रहा है। उजड़ते गांव, बंजर होती जमीनें, युवाओं की कमी और बुजुर्गों की लाचारी का फायदा कुछ चालाक लोग उठा रहे हैं। प्राकृतिक संसाधनों का अपने हितों के लिए उपयोग हो रहा है। 65 प्रतिशत जंगलों पर स्थानीय जनता को उनके हक से वंचित करने की साजिश जारी है। हर साल जंगलों में आग लगना साजिश है, आग बुझाने के नाम पर लाखों–करोड़ों की हेराफेरी होती है। आग का सर्वाधिक नुकसान पर्यावरण व जनजीवन पर पड़ा है। आग में करोड़ों की वन संपदा नष्ट हो रही है, हर साल हजारों किलोमीटर वन क्षेत्र आग में समा रहे हैं। यह कई बीमारियां की जड़ बन गयी है। साथ ही, जानवरों के समक्ष भी संकट पैदा हो गया है। ये अब पेट भरने व रैन बसेरे की तलाश में मानव आबादी तक आ पहुंचे हैं और मानव पर हमला कर रहे हैं, जिससे अभी तक सैकड़ों लोग शिकार हो चुके हैं। इन सबके पीछे की वजह पारिस्थिकीय असंतुलन है। मैदानी क्षेत्रों को देखें, तो लगभग 42 प्रतिशत खेती संकट के साये में है। उघोगों की स्थापना के नाम पर खेती योग्य जमीन सरकार व कंपनियों की मिलीभगत से छीन रही है। हिमालय के हिस्से इन कल-कारखानों का प्रदूषण आ रहा है, तो कंपनियां जमकर मुनाफा कमा रही हैं। यानी मुनाफाखोरी चरम पर है। वनीकरण का खेल खेलकर यूकेलिप्टस जैसी पानी सोखने वाली प्रजाति को बढ़ावा दिया जा रहा है। इससे एक आ॓र पानी के स्रोत सूख रहे हैं, जिससे मानव के समक्ष पानी का संकट है, तो वहीं पानी के अभाव में खेत भी बंजर हो रहे हैं। कहने को तो उत्तराखंड में भरपूर पानी है, फिर भी यहां की आबादी पानी को तरस रही है। पर्यावरणीय नजरिये से अहम रहे यहां के नौले, सिमार, चाल-खाल, पोखर और तालाब के संवर्धन के बजाय ऐसी योजनाएं अमल में लायी जा रही हैं जो पानी से उसका धरातलीय नियंत्रण छीन रहे हैं। इन्हीं सब चिन्ताओं को लेकर पिछले दिनों राज्यभर में ‘नदी बचाआ॓’ अभियान चलाया और 2008 को ‘नदी वर्ष’ भी घोषित किया गया था। जंगली वनस्पतियों व भू-क्षरण को रोकने में मददगार प्रजातियों के नष्ट होने से पहाड़ दरक रहे हैं, जिसके कई कुप्रभाव सामने आ रहे हैं। छोटे कस्बों, शहरों का तमाम कचरा नदियों में समा रहा है जिससे पापनाशिनी नदियां रोग पैदा कर रही हैं। भूस्खलनों से प्राकृतिक संपदा बर्बाद हो रही है, गांव व खेत उजड़ रहे हैं। हर साल कई परिवार बेघरबार हो रहे हैं। उनके सामने रोजी-रोटी का संकट है, तो सिर छुपाने की चिंता भी। भूस्खलन के मलबे से नदी-नाले पट रहे हैं, जिसके चलते बरसात में पानी की निकासी के अभाव में जलभराव की बड़ी समस्या सामने आ रही है। उत्तराखंड से बहने वाली 14 नदियों में 220 से अधिक जल विघुत परियोजनाएं चल रही हैं, जिनसे निकलने वाला लाखों टन मलबा इनमें समा रहा है, अब ये पवित्र नदियां मैला ढो रही हैं। यहां के गाड़, गधेरे, नदियां कंपनियों के पास गिरवी रखने की बड़ी साजिश चल रही है, लेकिन पर्यावरणीय नुकसान के आकलन, जनता के पुनर्वास व भूमि के मुआवजों संबंधी मुद्दों पर सरकार चुप है। इन परियोजनाओं के बनने से यहां का ‘इको–सिस्टम’ बदल रहा है। हिमालय को बचाना ही इलाज है।

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समाज की कट्टरता और पौराणिक थोथेपन के विरुध्ध संघर्षरत हर पल पर हैरत और हर जगह पंहुच की परिपाटी ने अवरुद्ध कर दिया है कुछ करने को. करूँ तो किसे कहूं ,कौन सुनकर सबको बतायेगा, अब तो कलम भी बगैर पैरवी के स्याही नहीं उगलता तो फिर कैसे संघर्ष को जगजाहिर करूँ.